रोमा समुदाय के नृत्य में भारतीय नृत्य की झलक : एक सांस्कृतिक विश्लेषण

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प्रवासन मानव जीवन का एक अपरिहार्य पहलू है। विभिन्न ऐतिहासिक कालों में मनुष्य सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक कारणों से प्रवास करता रहा है। इस संदर्भ में, रोमा समुदाय का भारत से प्रवासन अनिच्छित था। ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार, भारत पर आक्रमण के दौरान महमूद गजनवी रोमा को बंदी बना कर अफ़गानिस्तान ले गया। समुदाय की कुशल कलाकारी और कारीगरी में निपुणता भी इनके प्रवासन का मुख्य कारण बना। समय के साथ, बेहतर जीवन-यापन और सामाजिक अवसरों की खोज में रोमा अफ़गानिस्तान से अन्य देशों की ओर प्रवासित हुए। इसके परिणामस्वरूप, वे यूरोप सहित विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में बस गए।
घुमंतू जीवनशैली के कारण रोमा समुदाय की बसावट कभी स्थायी नहीं रही, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें लगातार आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। आर्थिक साधनों की कमी और जीवन-यापन के स्तर में सुधार की आवश्यकता ने उन्हें अपनी पारंपरिक कलाओं, विशेषतः नृत्य, का व्यवसायिक और सामाजिक रूप से उपयोग करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने समय के साथ अपनी कलात्मक प्रतिभा के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान स्थापित की। इस प्रक्रिया के तहत, 2010 में युनेस्को ने रोमा नृत्य को ‘अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ के रूप में मान्यता प्रदान की, जिससे उनके सांस्कृतिक योगदान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।
नृत्य और रोमा
भाषा के आविष्कार से पूर्व मानव ने कला को भावनात्मक अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम बनाया। इस संदर्भ में नृत्य को आदिम मानव की आंतरिक अनुभूतियों, आह्लाद और आनंद की स्वाभाविक अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। नृत्य न केवल व्यक्ति के भावों का प्रकटीकरण था, बल्कि सामूहिक चेतना और साझेपन का प्रतीक भी था। रोमा समुदाय, जो अपनी घुमंतू जीवनशैली और समृद्ध सांस्कृतिक परंपराओं के लिए जाना जाता है, नृत्य को अपनी सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान का केंद्र बनाया। उनके लिए नृत्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि जीवन का अभिन्न हिस्सा रहा है — एक ऐसा माध्यम जिसके द्वारा वे अपनी पीड़ा, संघर्ष, उत्सव और सांस्कृतिक गौरव को व्यक्त करते हैं। कालांतर में, रोमा नृत्य ने संगीत, लय और भाव-भंगिमाओं के विविध प्रतिरूपों को आत्मसात किया, जिससे यह कला वैश्विक स्तर पर एक विशिष्ट पहचान प्राप्त करने में सफल रही। आज रोमा नृत्य न केवल उनकी सांस्कृतिक निरंतरता का प्रतीक है, बल्कि मानवीय संवेदना, सौंदर्यबोध और कलात्मक स्वतंत्रता का भी प्रतिनिधित्व करता है।
रोमा समुदाय की सांस्कृतिक अस्मिता और नृत्य कला
यूरोप की ओर प्रवास के पश्चात रोमा समुदाय अनेक भिन्न संस्कृतियों और समाजों के संपर्क में आया। इस सांस्कृतिक संपर्क के परिणामस्वरूप उनकी कलाओं में विविधता और बहुलता का समावेश हुआ। यद्यपि स्थानीय परंपराओं का प्रभाव उनकी नृत्यकला में दृष्टिगोचर होता है, तथापि उनकी भारतीय सांस्कृतिक जड़ें पूर्णतः लुप्त नहीं हुईं। इसके विपरीत, आगत प्रभाव उनकी कला में समाहित और स्वांगीकृत होकर उसकी अभिव्यक्ति को और अधिक सशक्त बनाते हैं। यही सांस्कृतिक समन्वय रोमा नृत्य को वैश्विक पहचान प्रदान करता है, जिसमें भारतीयता की गहन छाप आज भी विद्यमान है।
साथ ही, यह उल्लेखनीय है कि प्रवासन के इस दीर्घ ऐतिहासिक क्रम में रोमा समुदाय को सामाजिक भेदभाव, संघर्ष और बहिष्कार जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा। यह भेदभाव शिक्षा, रोजगार, तथा सामाजिक सेवाओं तक उनकी सीमित पहुँच में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। परिणामस्वरूप, रोमा आज भी सामाजिक एवं आर्थिक रूप से हाशिए पर स्थित हैं। तथापि, अपनी सांस्कृतिक पहचान और अस्मिता की रक्षा में उनकी कला—विशेषकर नृत्य—एक प्रमुख भूमिका निभाती है। यही कला उनकी सामूहिक चेतना, संघर्षशीलता और सांस्कृतिक अस्तित्व की प्रतीक बनकर उभरती है।
ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि रोमा दक्ष कलाकार थे; वे उम्दा गायक व नर्तक थे और इसी कारण भारत पर आक्रमण के दौरान महमूद गजनवी उन्हें बंदी बनाकर ले गया था। विषम जीवनक्षम परिस्थितियों में रोमा लोगों ने अपने कौशल को बढ़ाया और विभिन्न स्थानों पर प्रव्रजित होते हुए अपनी नर्तन कला से अपनी सांस्कृतिक पहचान को भी बनाए रखा। कालांतर में जब वे यूरोप की ओर प्रवासित हुए, वे विभिन्न संस्कृतियों और समाजों के संपर्क में आए जिससे उनकी सांस्कृतिक पहचान में विविधता आई। जैसे-जैसे उन्होंने विभिन्न देशों में यात्रा की, उनकी कला और संस्कृति में स्थानीय कला व संस्कृति का प्रभाव आया; किंतु उस प्रभाव के कारण भारतीयता अदृश्य नहीं हुई, बल्कि उनकी कलाओं में आगत प्रभाव उसी में समादृत हो गए; समाहित व स्वांगीकृत हो गए। आगत प्रभाव के स्वांगीकरण ने रोमा नृत्य को नई पहचान दी।फिर भी, उनकी कलाओं में भारतीय सांस्कृतिक पहचान सुरक्षित और संरक्षित है। यहाँ यह तथ्य रेखांकित करना जरूरी है कि विभिन्न देशों में प्रवास के क्रम में रोमा को सामाजिक भेदभाव, संघर्ष और बहिष्कार जैसी गंभीर चुनौतियाँ का भी सामना करना पड़ा जो आज भी विभिन्न रूपों में विद्यमान है। रोमा समुदाय के प्रति भेदभाव कई स्तरों पर प्रकट होता है—शिक्षा, रोजगार, और सामाजिक सेवाओं तक पहुँच। परिणामतः, रोमा लोग सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं और वे अपनी सांस्कृतिक पहचान को बनाए रखने के लिए संघर्षरत हैं। उनकी अस्मिता और पहचान को सुरक्षित रखने में उनकी कला की महत्वपूर्ण भूमिका है।
रोमा नृत्य और राजस्थानी कालबेलिया नृत्य में सादृश्ता
बेल्जियम के गैस्बेक संग्रहालय में संरक्षित टुर्नाई टेपेस्ट्री (15वीं शताब्दी) को यूरोपीय कला में पहली प्रमाणित “जिप्सी नर्तकी” के रूप में जाना जाता है। यह पेंटिंग न केवल यूरोपीय चित्रकला में रोमा नृत्य की प्रारंभिक उपस्थिति को दर्शाती है, बल्कि इस समुदाय की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के ऐतिहासिक साक्ष्य के रूप में भी महत्वपूर्ण है। इस टेपेस्ट्री में प्रदर्शित नर्तकी की मुद्राएँ, परिधान, एवं शारीरिक लयात्मकता भारतीय नृत्य परंपरा की स्मृति जगाती हैं।
इतिहासकारों और कला-विशेषज्ञों का मत है कि टुर्नाई टेपेस्ट्री यूरोप में उस सांस्कृतिक संचार का प्रतीक है, जो भारत से प्रवासित रोमा समुदाय द्वारा संभव हुआ। इसी प्रकार, जियोर्जियोन की Gypsy and Soldier (1510), गारोफालो और कोर्रेगियो (1525) की चित्रकृतियाँ भी इस सांस्कृतिक प्रवाह का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। इन कलाकृतियों में रोमा नर्तकियों का चित्रण भारतीय नृत्य की भाव-प्रधानता, वेशभूषा और नृत्य मुद्राओं की झलक को प्रकट करता है।
कई प्रचलित इतिहासकार एवं विद्वान इस मत के पक्षधर हैं कि जिप्सी अथवा रोमा नृत्य की उत्पत्ति भारत से हुई थी, और यूरोप में इसकी उपस्थिति भारतीय सांस्कृतिक परंपरा के प्रसार का मूर्त रूप है। इस प्रकार, टुर्नाई टेपेस्ट्री केवल एक कलाकृति नहीं, बल्कि भारतीय नृत्य-संस्कृति की वैश्विक यात्रा का दृश्य-प्रमाण है, जो रोमा समुदाय की सांस्कृतिक पहचान और कलात्मक निरंतरता को ऐतिहासिक रूप में प्रमाणित करता है।

 

जिप्सी नर्तकी टुर्नाई टेपेस्ट्री, गैस्बेक संग्रहालय (15वीं शताब्दी), बेल्जियम

 

रहीस भारती अपने राजस्थानी समूह के साथ पेरिस 2023
चित्र स्रोत : रहीस भारती

वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना के जीवंत प्रतीक
राजस्थान के प्रसिद्ध कलाकार रहीस भारती और उनका धोद समूह पिछले पच्चीस वर्षों से भारतीय लोकसंगीत, नृत्य और पारंपरिक कला को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान कर रहे हैं। उनके प्रयासों ने राजस्थान की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर को यूरोप, अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के अनेक देशों तक पहुँचाया है। रहीस भारती ने अपने प्रदर्शन और संगीत के माध्यम से न केवल राजस्थानी लोककला को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर पहचान दिलाई, बल्कि भारतीय लोकसंस्कृति की गरिमा और प्रतिष्ठा को भी सुदृढ़ किया है।
भारतीय संस्कृति का मूल स्वर “वसुधैव कुटुम्बकम्” — अर्थात् सम्पूर्ण विश्व को एक परिवार मानने की भावना — उसकी कला, संगीत और नृत्य परंपराओं में गहराई से निहित है। यही भावना रोमा समुदाय, कालबेलिया नर्तकों और रहीस भारती जैसे कलाकारों की अभिव्यक्ति में सजीव रूप में दिखाई देती है।
रोमा समुदाय, जो भारत से प्रवासित होकर विभिन्न देशों में बसा, अपनी नर्तन-कला के माध्यम से भारतीयता की छाप आज भी बनाए हुए है। उनके नृत्य में भारतीय लोकनृत्यों, विशेषकर राजस्थान की कालबेलिया परंपरा, की लयात्मकता और भावाभिव्यक्ति की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। कालबेलिया नृत्य — जो लचीली गतियों, सांप जैसी मुद्राओं और रंगीन परिधानों के लिए प्रसिद्ध है — भारतीय लोकसंस्कृति की जीवंतता का प्रतीक है। यही लय और अभिव्यक्ति रोमा नृत्य में भी रूपांतरित होकर वैश्विक मंचों तक पहुँची है।
इसी सांस्कृतिक परंपरा को आगे बढ़ाते हुए रहीस भारती और उनका धोद समूह पिछले पच्चीस वर्षों से भारतीय लोकसंगीत और नृत्य को विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा प्रदान कर रहे हैं।

 

राजस्थानी समूह के साथ फ़्रांस के टूर्स शहर में 2025
चित्र स्रोत : रिमझिम सिन्हा
रोमा समुदाय का नृत्य न केवल उनके जीवन और सांस्कृतिक पहचान का प्रमुख माध्यम है, बल्कि यह भारतीय नृत्य परंपराओं, विशेषकर राजस्थान की कालबेलिया शैली, की झलक भी प्रस्तुत करता है। प्रवासन और विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों के बावजूद, रोमा नृत्य ने अपनी मूल भारतीय जड़ों को संरक्षित रखते हुए वैश्विक पहचान बनाई। यह कला उनके संघर्ष, सांस्कृतिक गौरव और मानवीय भावनाओं का प्रतीक है। साथ ही, रहीस भारती और उनके समूह जैसे कलाकार यह दर्शाते हैं कि भारतीय लोकसंगीत और नृत्य की परंपरा आज भी विश्व स्तर पर अपनी गरिमा और प्रभाव बनाए हुए है। इस प्रकार, रोमा और भारतीय नृत्य के बीच का सांस्कृतिक संबंध समय और सीमाओं की बाधाओं को पार करता है, और वैश्विक मंच पर “वसुधैव कुटुम्बकम्” की भावना को जीवंत रखता है।

 

by:- Dr.Rimjhim Sinha
Former Research Associate National law University Delhi