कहानी…. एक ऐसी रियासत की जो दुनिया की तमाम खूबसूरती को अपने में समाये हुए है. धरती का स्वर्ग कही जाने वाली इस रियासत का इतिहास उतना ही डरावना है जितनी इसकी खूबसूरती है. शासन करने वाले बदलते रहे लेकिन इसकी खूबसूरती आज भी वैसी की वैसी है. या फिर कहें कि पहले से भी ज्यादा खूबसूरत. आइए जानते हैं इसका इतिहास और भारत में इस रियासत का विलय…..
इतिहास:
कश्मीर का नाम कश्यप ऋषि के नाम पर पड़ा था. कश्मीर के सभी मूल निवासी हिंदू थे. कश्मीरी पंडितों की संस्कृति लगभग 6000 साल पुरानी है और वे ही कश्मीर के मूल निवासी माने जाते हैं. 14वीं शताब्दी में तुर्किस्तान से आए एक क्रूर मंगोल मुस्लिम आतंकी दुलुचा ने 60,000 लोगों की सेना के साथ कश्मीर पर आक्रमण किया और कश्मीर में धर्मांतरण करके मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना की. दुलुचा ने नगरों और गांवों को नष्ट कर दिया और हिंदुओं का नरसंहार किया. हिंदुओं को जबरदस्ती मुस्लिम बनाया गया. और जिसने इस्लाम कबूल नहीं किया उन्होंने आत्महत्या कर ली. कुछ हिन्दुओं ने वहां से पलायन कर लिया . जम्मू, कश्मीर और लद्दाख पहले हिंदू शासकों और फिर बाद में मुस्लिम सुल्तानों के अधीन रहा. बाद में यह राज्य अकबर के शासन में मुगल साम्राज्य में शामिल हुआ. वर्ष 1756 से अफगान शासन के बाद वर्ष 1819 में यह राज्य पंजाब के सिख साम्राज्य के अधीन हो गया. वर्ष 1846 में रंजीत सिंह ने जम्मू क्षेत्र महाराजा गुलाब सिंह को सौंप दिया था. कश्मीर क्षेत्र से गिलगित क्षेत्र को बाहर माना जाता था. भारत में जब ब्रिटिश राज आया तो अंग्रेजों नें जम्मू और कश्मीर में पुन: एजेन्ट की नियुक्ति की . महाराजा गुलाब सिंह के सबसे बड़े पौत्र महाराजा हरि सिंह 1925 ई. में गद्दी पर बैठे जिन्होंने 1947 ई. तक शासन किया.
जम्मू, कश्मीर और लद्दाख दरअसल तीन अलग-अलग क्षेत्र हैं:
जम्मू
भारतीय ग्रंथों के अनुसार जम्मू को डुग्गर प्रदेश कहा जाता है. जम्मू संभाग में 10 जिले हैं. जम्मू, सांबा, कठुआ, उधमपुर, डोडा, पुंछ, राजौरी, रियासी, रामबन और किश्तवाड़. जम्मू का कुल क्षेत्रफल 36,315 वर्ग किमी है. इसके लगभग 13,297 वर्ग किमी क्षेत्रफल पर पाकिस्तान का कब्जा है. पाकिस्तान जम्मू के इसी हिस्से को ‘आजाद कश्मीर’ कहता है जबकि कश्मीर के हिस्सों को उसने अन्य भागों में बांट रखा है.
कश्मीर
कश्मीर का क्षेत्रफल लगभग 16,000 वर्ग किमी है. इसके 10 जिले श्रीनगर, बड़गाम, कुलगाम, पुलवामा, अनंतनाग, कूपवाड़ा, बारामूला, शोपियां, गन्दरबल, बांडीपुरा हैं. यहां सुन्नी, शिया, बहावी, अहमदिया मुसलमानों के साथ हिन्दू, जिनमें से अधिकतर गुर्जर, राजपूत और ब्राह्मण रहते हैं. आतंकवाद का प्रभाव कश्मीर घाटी के कश्मीरी बोलने वाले सुन्नी मुसलमानों तक ही है.
लद्दाख
लद्दाख एक ऊंचा पठार है जिसका अधिकतर हिस्सा 3,500 मीटर (9,800 फीट) से ऊंचा है. यह हिमालय और काराकोरम पर्वत श्रृंखला और सिन्धु नदी की ऊपरी घाटी में फैला है. करीब 33,554 वर्गमील में फैले लद्दाख में बसने लायक जगह बेहद कम है. यहां हर ओर ऊंचे-ऊंचे विशालकाय पथरीले पहाड़ और मैदान हैं. यहां के सभी धर्मों के लोगों की जनसंख्या मिलाकर 2,36,539 है. ऐसा माना जाता है कि लद्दाख मूल रूप से किसी बड़ी झील का एक डूबा हिस्सा था जो कई वर्षों के भौगोलिक परिवर्तन के कारण लद्दाख की घाटी बन गया. 18वीं शताब्दी में लद्दाख और बाल्टिस्तान को जम्मू और कश्मीर के क्षेत्र में शामिल किया गया. 1947 में भारत के विभाजन के बाद बाल्टिस्तान, पाकिस्तान का हिस्सा बना.
भारत में विलय:
जब भारत आजाद हुआ तो भारत का एक बहुत बड़ा भू-भाग धर्म के नाम पर अलग हो गया जिसका नाम पाकिस्तान रखा गया. ब्रिटिश राज ने सभी मौजूदा रियासतों और राजतंत्रों के सामने पेशकश की कि वो भौगोलिक स्थितियों के लिहाज से भारत और पाकिस्तान में से किसी एक में अपना विलय कर लें. तब जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने स्वाधीनता की घोषणा कर दी थी. उनका कहना था कि ‘ना तो हम भारत में जुड़ेंगे और न ही पाकिस्तान में हम अपनी स्वतंत्र पहचान बनाकर रहेंगे. हालांकि उसके बाद ऐसी स्थितियां पैदा हुईं कि उन्हें भारत में विलय करना पड़ा.
दरअसल उस वक़्त कश्मीर में उनके सबसे बड़े विरोधी शेख अब्दुल्ला थे. अब्दुल्ला का जन्म शॉल बेचने वाले एक व्यापारी के घर में हुआ था. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एम.एससी की थी. पढ़ने में कुशाग्र होने के साथ-साथ वह शानदार वक्ता भी थे. उन्हें अपनी बातें तर्कों, तथ्यों के साथ रखनी आती थी. 1932 में उन्होंने महाराजा के खिलाफ बढ़ रहे असंतोष को आवाज देने के लिए ऑल जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कांफ्रेंस का गठन किया. छह साल के बाद उन्होंने इसका नाम बदलकर नेशनल कॉन्फ्रेंस रख लिया. जिसमें हिंदू और सिख समुदाय के लोग भी शामिल होने लगे. इसी समय अब्दुल्ला ने जवाहरलाल नेहरू से भी नजदीकी बढ़ाई. दोनों हिंदू-मुस्लिम एकता और समाजवाद पर एकमत थे. नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस में नजदीकियां होने लगीं. 1940 के दशक में अब्दुल्ला कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता बन चुके थे. कई बार वो जेल भी गये थे.
महाराजा के मन में स्वतंत्र रहने का विचार जम चुका था. वह कांग्रेस से नफरत करते थे इसलिए भारत में शामिल होने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. लेकिन अगर वो पाकिस्तान में शामिल हो जाते तो उनके हिंदू राजवंश का सूरज अस्त हो जाता. सितम्बर 1947 के आसपास खबरें मिलने लगीं कि पाकिस्तान बड़ी संख्या में कश्मीर में घुसपैठियों को भेजना चाहता है. इस बीच 25 सितम्बर 1947 को महाराजा ने शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया.
15 अगस्त 1947 को जब ब्रिटिश राज का अंत हुआ तो ब्रिटिश और भारतीय अधिकारियों की काफ़ी कोशिशों के बावजूद हरि सिंह किसी फ़ैसले पर नहीं पंहुच सके थे. पाकिस्तान ने इसे मोके की तरह लिया और कश्मीर पर हमले की योजना बनाई. पाकिस्तान ने क़बायली लड़ाकों को कश्मीर में हमले के लिए भेजा. पाकिस्तान की नई सरकार और सेना के एक हिस्से ने इन लड़ाकों का समर्थन किया था और उन्हें हथियार मुहैया कराए थे. जब क़बायलियों की फ़ौज श्रीनगर की ओर बढ़ी तो वहां ग़ैर मुस्लिमों की हत्या और उनके साथ लूट पाट की. तब हरि सिंह 25 अक्टूबर को शहर छोड़ कर भाग गए थे. उस समय के राजकुमार कर्ण सिंह याद करते हुए कहते हैं कि उनके पिता ने जम्मू पंहुच कर ऐलान किया था कि “हम कश्मीर हार गए”.
वीपी मेनन ने अपनी किताब “पॉलिटिकल इंटीग्रेशन आफ इंडिया” में लिखा, “24 अक्टूबर को महाराजा ने भारत सरकार को सैनिक सहायता का संदेश भेजा. अगले दिन दिल्ली में भारत की सुरक्षा समिति की बैठक हुई. वीपी मेनन को जहाज से तुरंत श्रीनगर रवाना किया गया. उन्होंने श्रीनगर में महाराजा से मुलाकात करने के बाद उन्हें हमलावरों से सुरक्षित जम्मू जाने की सलाह दी. सरदार पटेल पाकिस्तान के कबायलियों से मुकाबले के लिए भारतीय सेना को फौरन कश्मीर भेजना चाहते थे. लेकिन माउंटबेटन ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया. उन्होंने महाराजा से पहले विलय के कागजों पर दस्तखत करा लेने को कहा. उनका साफ कहना था कि बिना कानूनी विलय के वह ब्रिटिश अफसरों को भारतीय सेना के साथ नहीं जाने देंगे. 26 अक्टूबर को वीपी मेनन को जम्मू में महाराजा के पास फिर से भेजा गया. वहां मेनन से उनसे विलय पत्र पर दस्तखत कराया और दिल्ली आ गए. इसके बाद भारत ने उरी तक के क्षेत्र से कबायलियों को खदेड़ते हुए इसे अपने कब्जेे में ले लिया. कश्मीर को लेकर दोनों देशों में तनातनी चरम पर थी. ये तब तक जारी रही जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली संयुक्त सुरक्षा समिति की बैठक में भाग लेने के लिए दिल्ली आए थे. वह और नेहरू इस बात पर सहमत हो गए थे कि पाकिस्तान कबायलियों को लड़ाई बंद करके जल्दी से जल्दी वापस लौटने के लिए कहेगा. भारत भी अपनी ज्यादातर सेनाएं हटा लेगा. संयुक्त राष्ट्र को जनमत संग्रह के लिए एक कमीशन भेजने के लिए कहा जाएगा.
साल 1948 के बसंत में एक बार फिर लड़ाई छिड़ गई. आजाद होने के कुछ महीनों के अंदर ही भारत और पाकिस्तान कश्मीर में एक दूसरे से लड़ रहे थे. युद्धविराम ने रियासत को प्रभावी रूप से दो हिस्सों में बांट दिया. जिस जनमत संग्रह का भरोसा दिया गया था वह कभी नहीं कराया गया. महाराजा ने विलय के काग़ज़ात पर दस्तख़त इस विवाद के निपटारे के लिए किया था लेकिन उस विवाद का समाधान उससे नहीं हुआ. और आज भी ये मुद्दा नहीं सुलझ पाया है.